Opinion: फिर वही गलती, क्या राहुल गांधी 2029 के लोकसभा चुनाव की तैयारी कर रहे हैं?
BJP versus Congress 2024 Political race: रिंग में अगर सामने सूमो पहलवान चुनौती दे रहा हो तो एक भी दांव चूकने का मतलब हार पर मुहर लगना समझिए. 2014 के बाद से कांग्रेस एक के बाद एक गलती करती चली आ रही है. पहले युवा नेतृत्व की अनदेखी की. इसका खामियाजा यह हुआ कि न तो राज्य में और न ही केंद्र में नेताओं की दूसरी कतार तैयार हो सकी. झटके लगातार मिलते रहे लेकिन मुख्य विपक्षी दल ने सबक नहीं सीखा. एक-एक कर कांग्रेस के ही युवा चेहरे भाजपा में जाकर करिश्मा दिखाने लगे. पूर्वोत्तर के हिमंता बिस्वा सरमा से लेकर जितिन प्रसाद तक. हाल में मिलिंद देवड़ा भी नमस्ते कह गए. इसका मतलब कांग्रेस हाईकमान अपने नेताओं की क्षमता को परखने में फेल रहा. अब 2024 का लोकसभा चुनाव करीब है लेकिन I.N.D.I.A गठबंधन की हालत देख यह कहा जा सकता है कि ग्रैंड ओल्ड पार्टी गर्मी के मौसम में आसमानी इंद्रधनुष देखने की उम्मीद लगाए बैठी है. उंगली राहुल गांधी की तरफ उठ रही है.
नीतीश का पाला बदलना आश्चर्य नहीं...
हां, नीतीश कुमार का गठबंधन तोड़ना बहुत ज्यादा आश्चर्यजनक नहीं है. बार-बार पाला बदलना उनकी आदत रही है. चिंता की बात यह है कि जब गठबंधन मजबूत दिखाई दे रहा था तब कांग्रेस ने यह सब कैसे होने दिया? आज एंटी-बीजेपी या कहें एंटी-एनडीए मोर्चे के बिखरते स्वरूप के लिए सीधे तौर पर कांग्रेस पार्टी, गांधी परिवार और खासतौर से राहुल गांधी जिम्मेदार कहे जाएंगे. पहली बार जब वह यात्रा निकाल रहे थे तो कई राज्यों में चुनाव थे. इस बार सड़क पर निकले हैं तो लोकसभा चुनाव में एक-एक दिन कम हो रहा है. क्या राहुल गांधी इस बात को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं कि वह चुनाव जीतकर ही बीजेपी को सत्ता से हटा सकते हैं. अच्छा होता यात्रा ही निकालते तो उसमें विपक्षी गठबंधन दिखाई देता.
राहुल को यात्रा से क्या मिलेगा?
यात्राएं छवि चमकाने, जनता के करीब जाने, जमीनी हकीकत से रूबरू होने के लिए निकाली जाती हैं. इस बात की कोई गारंटी नहीं ले सकता कि चुनाव में वह भीड़ वोटों में तब्दील हो जाएगी. वैसे भी, इस समय कांग्रेस के अच्छे दिन नहीं चल रहे हैं. जनता के बीच उसकी निगेटिव छवि बनाने में बीजेपी सफल रही है और विडंबना यह है कि कांग्रेस उसका जवाब भी नहीं दे पा रही. आलू-सोने की तरह पिछले दिनों कोयले का स्टोव भी गजब प्रचारित किया गया. हां, राहुल के सड़क पर दिखने से उनकी कर्मठ नेता की छवि जरूर बनी है. युवाओं ने उन्हें करीब से जाना, समझा है. उन्हें सुना है. उनके इंटरव्यू की बाढ़ आई लेकिन यह सब और चुनाव दोनों बिल्कुल अलग चीजें हैं. यहीं पर कांग्रेस भाजपा से पिछड़ जाती है.
कांग्रेस को समझना होगा कि भाजपा को लोग 'चुनावी मशीन' क्यों कहते हैं? चुनौती जब सत्तारूढ़ भाजपा से मिल रही हो तो रणनीति भी दमदार और लीक से हटकर होनी चाहिए थी. इसके लिए कांग्रेस को पीएम पोस्ट देने में भी गुरेज नहीं करना चाहिए था.
गठबंधन में बस खानापूर्ति!
पहली यात्रा के समय भी कांग्रेस की हार के पीछे राहुल की गलत समय पर यात्रा एक बड़ी वजह समझी गई थी क्योंकि सारे केंद्रीय नेता सड़क पर चलते-चलते थक गए. हिमाचल प्रदेश की सत्ता मिलने में राज्य के नेताओं की ज्यादा भूमिका रही. वैसे भी पहाड़ी प्रदेश पांच साल के बाद सरकार बदलता रहा है. इस बार 'इंडिया' गठबंधन में सीट शेयरिंग भी नहीं हो सकी और राहुल दिल्ली छोड़कर पूर्वोत्तर की सड़कों पर निकल पड़े.
पिछले 6-7 महीने में गठबंधन की गतिविधियों को देखें तो खानापूर्ति ज्यादा दिखाई देती है. ऐसा लगा जैसे आज की बैठक अगली बैठक की तारीख तय करने के लिए हुई है. बस कमेटी बनी, पावर सेंटर नहीं दिखा, शक्तियों का बंटवारा नहीं किया गया. न अध्यक्ष बना न समन्वयक. राहुल गांधी कहते रहे कि उन्हें किसी पद की इच्छा नहीं पर पार्टी की मंशा कुछ और ही दिखी.
हर राज्य में अड़ंगा
खरगे का नाम उछला तो क्षेत्रीय क्षत्रपों को समझ में आ गया कि कांग्रेस भले ही गठबंधन कर रही है पर वह केंद्रीय भूमिका यानी पीएम पोस्ट नहीं देने वाली. हां, जब सीट शेयरिंग में हर राज्य में अड़ंगा चलेगा तो यह संदेश जाएगा ही. ममता बनर्जी का सभी सीटों पर लड़ने का ऐलान, उधर पंजाब में आम आदमी पार्टी की घोषणा यूं ही नहीं है. कांग्रेस की सुस्ती के कारण ही यह स्थिति पैदा हुई है. ऐसे समय में जब गठबंधन की गहमागहमी मीडिया में जगह पा रही थी. चर्चा बढ़ रही थी. हर राज्य के हिसाब से समीकरण साधे जा रहे थे तो पूरी कांग्रेस राहुल गांधी की यात्रा पर फोकस करने में जुट गई. उसमें भी वह बिना सहयोगी दलों से बातचीत किए निकल पड़े. अच्छा होता बंगाल में यात्रा पहुंचने से पहले ममता से बात हो जाती और दोनों एक साथ सड़क पर दिखते तो जनता में भी संदेश जाता कि विपक्ष मजबूत दिख रहा है. नरैटिव बनते हैं तो बदले भी जा सकते हैं.
बीजेपी से फिर पिछड़ी कांग्रेस
उधर, बीजेपी की रणनीति समझिए. पार्टी नेतृत्व को पता है कि उनका प्लस पॉइंट हिंदी हर्टलैंड है. इसमें बिहार अब तक थोड़ी टेंशन दे रहा था क्योंकि वहां आज भी जाति के हिसाब से वोटिंग होती है. नीतीश कुमार के विपक्षी गठबंधन में असहज होने की जैसे ही खबर बीजेपी को हुई, उसने अंदरखाने जेडीयू से हाथ मिलाने की पटकथा लिखनी शुरू कर दी. कांग्रेस की अगुआई वाले गठबंधन में नीतीश को कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी, लालू-तेजस्वी अपना प्रेशर बना रहे थे, ऐसे में बीजेपी ने इशारा किया और नतीजा हम देख रहे हैं. नीतीश के आने से एनडीए ने लोकसभा चुनाव में अपनी स्थिति और मजबूत कर ली है.
अच्छा होता राहुल गांधी नीतीश को गठबंधन का संयोजक बनाने के लिए माहौल तैयार करते. यह सवाल राहुल से इसलिए पूछा जाएगा क्योंकि सभी लोग नीतीश को संयोजक बनाने पर राजी थे लेकिन राहुल ने कथित तौर पर यह कह दिया कि चूंकि ममता बनर्जी नहीं हैं इसलिए उनकी भी सहमति ली जानी चाहिए. अगले 15 दिन मामला ठंडे बस्ते में चला गया. क्या इसी तरह से 2024 का लोकसभा चुनाव कांग्रेस लड़ेगी? वैसे भी राहुल गांधी के साथ जो 'ग्रैंड ओल्ड' खड़े हैं या चल रहे हैं उनके लिए शायद यह आखिरी लोकसभा चुनाव हो. आगे वे रिटायरमेंट ले लें या फिर खुद को प्रेस कॉन्फ्रेंस, ट्वीट और बैठकों तक सीमित कर लें.
मई 2024 का रिजल्ट तैयार है?
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई ठीक ही कहते हैं कि मई 2024 के लिए अभी से पटकथा तैयार हो रही है जिसमें क्षेत्रीय दल कांग्रेस को दोषी ठहराएंगे. कांग्रेस के भीतर भी एक तबका राहुल के खिलाफ है. प्रियंका गांधी भी काफी समय से सामने नहीं दिख रही है.
ऐसा नहीं है कि पहले कई दलों और विचारधाराओं के नेताओं ने साथ आकर मोर्चा नहीं बनाया. सरकारें भी बनी हैं. वह 77 का चुनाव हो, 89, 96 या 2004. राहुल गांधी के यात्रा पर फोकस से लगता है जैसे वह 2029 के लोकसभा चुनाव की तैयारी कर रहे हैं. यात्रा निकालनी भी थी तो उन्हें पहली यात्रा के बाद इतने महीनों तक रुकना नहीं था और चुनावी साल की शुरुआत में ही वह इसे पूरी कर लेते. तब शायद कुछ माहौल भी बन पाता.
आज के हालात ऐसे हैं जैसे 100 सीटें हासिल कर भी कांग्रेस खुद को अच्छी पोजीशन में मानेगी. वैसे भी उसने आधे सीटों पर ही कैंडिडेट उतारने का मन बनाया है. अगर ऐसा था तो कांग्रेस को यह स्वीकार करने में क्या दिक्कत थी कि 25-30 सीटें पाने वाले क्षेत्रीय नेता को पीएम पद मिल जाए.
एवरेस्ट पर बीजेपी का आत्मविश्वास
कांग्रेस को एनडीए के सामने अपने गठबंधन को 'सूमो पहलवान' की तरह पेश करना था लेकिन मुख्य विपक्षी दल अपने ही सहयोगियों में 'सूमो' बनने की कोशिश करने लगा. अगर राहुल-सोनिया ने गंभीरता से गठबंधन को मजबूत करने की कोशिश की होती तो विपक्ष इस तरह बिखरता नहीं दिखता. वैसे भी, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के बाद बीजेपी का कॉन्फिडेंस एवरेस्ट छू रहा है. उसे चुनौती देने के लिए आसमान की बुलंदी चाहिए होगी.
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